Dhruvswamini- jaishankar prasad

 ध्रुवस्वामिनी  समीक्षा  || ध्रुवस्वामिनी नाटक का सारांश || ध्रुवस्वामिनी - जयशंकर प्रसाद || Dhruvswaini -Jaishankar Prasad




जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी १८९० - १५ नवंबर १९३७)हिन्दी कविनाटककार, कहानीकारउपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया।


     पुस्तक का नाम           

"ध्रुवस्वामिनी"   

शैली /GENRES :-

स्त्री शक्ति  ,    आत्मबोध

लेखक /AUTHOR :-

जयशंकरप्रसाद  

प्रकाशक /PUBLISHER

 

प्रकाशन/PUBLISHED

 1933

सीरीज/SERIES

नहीं

मूल्य/price

 

काल्पनिक / Fictional

 नहीं

वास्तविक/Nonfictional

ऐतिहासिक 

ABUSIVE WORD

No

पाठक / Reader Age   

सभी उम्र के पाठक



प्रसाद जी  का विश्लेषण था कि आधुनिक काल में सामाजिक समरसता और राष्ट्रीयता के आड़े तीन बाधाएँ आती हैं-- सांप्रदायिकता की भावना, प्रादेशिकता के तनाव तथा पुरुष-नारी के बीच असमानता की स्थिति। अपने प्रधान नाटकों 'अजातशत्रु', 'स्कन्दगुप्त', 'चन्द्रगुप्त' तथा 'ध्रुवस्वामिनी' में उन्होंने इन्हीं का समाधान देने का यत्न किया है।



ध्रुवस्वामिनी  नाटक  के पात्र 

 ध्रुवस्वामिनी जयशकर प्रसाद जी एक  नाटक हैं  अतः  पात्रों की महत्ता अत्यधिक हैं मुख्य पात्र के साथ साथ सहायक व हास्य पात्र भी उपस्थित हैं ,नाटकों मे हास्य पत्रों का होना सही भी हैं क्योंकि नाटक का संदेश गंभीर होता हैं और बेच बीच में दर्शकों की मनः इस्तहिती हल्का करना बहित जरूरी हैं इस  नाटक मे भी ऐसे ही  पात्र हैं |

मुख्य पात्र - ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त रंगुप्त 

सहायक -  मंदाकिनी और कोमा  स्त्री पात्र 

                  शिखरस्वामी (आमात्य ), शकराज, खिंगिल, मिहिरदेव और पुरोहित  पुरुष पात्र 

हास्य - बौना , कुबरा 



ध्रुवस्वामिनी नाटक  की भाषा शैली :

 मैं उपहार में देने की वस्तु शीतल मणि नहीं हूं, मुझमें रक्त की तरह लालिमा है, मेरा हृदय उष्ण है और आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा में ही करूंगी।” ( ध्रुवस्वामिनी का कथन )

ध्रुवस्वामिनी की भाषा शुद्ध हिन्दी जो पढ़ने मे सरल और सुलभ भी हैं क्योंकि यह नाटक हैं इसलिए इसे नाटक की शैली मे लिखा गया  हैं हर पात्र के लाइन उनके  व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता हैं |

 हर शब्द  सभी पात्र के भाव को बहुत सुन्दर प्रदर्शित कर रहे हैं ,और  छायावाद भी कई जगह दिखता हैं , इसमे हमे यथार्थ ज्ञान और प्रेरणा भी देती हैं  इसमे प्रगतिशील विचार जो समय से आगे की सोच को प्रदर्शित करता हैं |



 

"ध्रुवस्वामिनी" समीक्षा  


मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को पशु समान समझ कर उन पर अत्याचार करने का जो अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते तो मुझे बेच भी नहीं सकते।(ध्रुवस्वामिनी का कथन)


इसका प्रकाशन  1933 ई. मे यह  3 अंक  मे है इस  नाटक की नायिका ध्रुवस्वामिनी हैं नाटक का कथानक गुप्तकाल से संबंधित  है।प्रसाद जी के अनुसार विशाखदत्त द्वारा रचित संस्कृत नाटक देवी चंद्रगुप्त में यह घटना अंकित है जिसमें ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह चंद्रगुप्त के साथ हुआ बताया गया।

 ध्रुवस्वामिनी एक इतिहासिक नाटक हैं यह नाटक गुप्त काल  के राजा रामगुप्त और चन्द्रगुप्त की  हैं जिसमे ध्रुवस्वामिनी राम गुप्त की पत्नी हैं ,रामगुप्त जो राज्य हैं  उसके पास पूरी राजसी सुख सुविध हैं भोग विलास का आदी हैं ,वह चारों ओर से अपने शत्रु  से घिरा हैं फिर भी रामगुप्त   शराब मदिरा संगीत का सुख भोगना चाह रहा  हैं ,चन्द्रगुप्त जो वीर हैं पर अपने बड़े भाई  और  राज्य का विरोध भी करने  पर  उसे करग्रह मे बंद कर दिया जाता हैं |  

यह नाटक एक प्रेम कहानी  भी हैं  इस नाटक से प्रसाद जी ने  स्त्री का अपने आत्मसम्मान अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए किसी पुरुष पर निर्भर रहना उसका अपनी इज्जत की रक्षा के लिए एक कायर भोग विलासिता मे डूबे व्यक्ति से प्रार्थना करती हैं जो खुद अपनी जान बचाने के लिए उसे बेच रहा हैंजिसे वह स्वयं सम्मान के नजर से नहीं देखती पर विवास्त में उसे ये करना पड़ता हैं |

 नारी समस्या के चारों ओर ये  संपूर्ण नाटक रचा गया है।ध्रुवस्वामिनी नाटक में प्रसाद जी ने नारी समस्या को  प्रभावशाली  शैली में चित्रित  किया है। ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से स्त्री अस्मिता की रक्षा करने के भरपूर प्रयास किया है। ध्रुवस्वामिनी नाटक में नारी को वीरसाहसी और गौरवान्वित रूप प्रस्तुत किया है।



" तुम लोगों में यदि कुछ भी बुद्धि होती तो इस अपनी कुल मर्यादा नारी को शत्रु के दुर्ग में यूं ना भेजते भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न करके ही अधिकारों से वंचित किया है। किंतु तुम लोगों की दस्यु वृत्ति ने उन्हें लूटा है।"


ध्रुवस्वामिनी की पहली पंक्ति ही प्रसाद के इस  कृति के उद्देश्य को स्पष्ट कर देती है "पुरुष की कठोरता और नारी का अबलापन पुरुष का प्रमुख और स्त्री की दासता " यही असमानता नाटक का बीज है।

ध्रुवस्वामिनी नाटक में नाट्य विधा  के सभी तत्वों का सुन्दर संयोजन हुआ है।  पात्रों  की नजरिये   से भी यह एक उत्कृष्ट नाटक  है।


 "ध्रुवस्वामिनी" नाटक  का सारांश : 

 

गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने बड़े पुत्र रामगुप्त जो अयोग्य विलासी कामुक एवं दुराचारी था, के बजाय अपने छोटे  पुत्र चंद्रगुप्त को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया था और उसका विवाह जीते गये  राज्य के राजा की कन्या ध्रुवस्वामिनी से निश्चित किया था। 

किंतु समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत शिखर स्वामी नामक षड्यंत्रकारी मंत्री  के सहयोग से रामगुप्त राज्य का उत्तराधिकारी बन बैठा और उसने ध्रुवस्वामिनी से विवाह भी कर लिया। चंद्रगुप्त पारिवारिक विग्रह की आशंका से शांत  रहा ।

दूसरी ओर रामगुप्त को  चन्द्रगुप्त के प्रति संदेह हो जाता है। परिणामस्वरूप ध्रुवस्वामिनी को कठोर नियंत्रण में रखा जाता है।स्वयं सुन्दरियों के संपर्क में रहकर अपने जीवन और समस्त राजकीय व्यवस्था की आहुति देता है।  

 उसी समय रामगुप्त पर शकों पर आक्रमण होता है। शकराज ने युद्ध रोकने  के लिए रामगुप्त के पास  संधि प्रस्ताव भेजा जिसके अनुसार रामगुप्त को अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी  को उपहार में देना होगा । रामगुप्त ने इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया

ध्रुवस्वामिनी ने रामगुप्त से अपनी रक्षा की प्रार्थना की अपने  मान-सम्मान और कुल के  गौरव  की रक्षा के लिए  प्रार्थना किया। किंतु रामगुप्त ने   कायरों की तरह  स्वयं के  प्राणो की  रक्षा लिए शकराज के शर्त  प्रस्ताव को स्वीकृत कर लिया।

 रामगुप्त की निर्लज्जता और कायरता को देख ध्रुवस्वामिनी का आत्मसम्मान  जागृत होता है और वह कहती हैं  ” यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते अपने कुल  मर्यादा नारी का गौरव नहीं बचा सकते तो तुम्हें बेचने का अधिकार नहीं " वह आत्महत्या करना चाहती है। किंतु चंद्रगुप्त उसे  रोकता है और अपने कुल की मर्यादा बचाने के लिए ,वह स्वयं स्त्री वेश में ध्रुवस्वामिनी के साथ शकराज के शिविर में जाता है और शकराज की हत्या कर देता है|

चन्द्रगुप्त में  एक वीर शासक की क्षमता और अपने राज्य  के लिए समर्पित देखकर सब सामंत एक स्वर में उसे अपना सम्राट एवं ध्रुवदेवी को राजमर्हिषी के रूप में स्वीकार करते हैं। 

और अंत में  जब  रामगुप्त चन्द्रगुप्त पर आक्रमण करता  है तब  एक सामन्त द्वारा उसकी हत्या हो जाती है। ध्रुवस्वामिनी नाटक में प्रसाद जी ने इतिहास का  कल्पना का सुंदर समन्वय किया है। 

ध्रुवस्वामिनी- पुस्तक समीक्षा | dhruvswamini Pustak Samiksha in  Hindi 

उम्मीद हैं आपको यह ध्रुवस्वामिनी  पुस्तक समीक्षा  अच्छी लगी होगी हमे कमेन्ट कर जरूर बताए, धन्यवाद !


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