डॉ. रखमाबाई राऊत - पहली महिला प्रैक्टिस डॉक्टर | biography of Rakhmabai in Hindi

डॉ. रखमाबाई राऊत(1864-1955)


बाल विवाह की इस दुष्ट प्रथा ने मेरे जीवन की खुशियों को नष्ट कर दिया है। यह मेरे और उन चीजों के बीच आता है, जिन्हें मैं अन्य सभी से ऊपर पुरस्कार देता हूं - अध्ययन और मानसिक साधना। इसके अलावा बिना मेरी किसी गलती के मैं पृथकता के लिए अपराधी हूं; मेरी अनभिज्ञ बहनों से ऊपर उठने की मेरी हर आकांक्षा को संदेह की नजर से देखा जाता है और इसकी व्याख्या सबसे ज्यादा अनचाहे तरीके से की जाती है।"
                                            - रखमाबाई राऊत

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रखमाबाई राऊत | Image source - Google

 

रखमाबाई औपनिवेशिक भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली सबसे महत्वपूर्ण हस्तियों में से एक थीं। महिलाओं के साथ भेदभाव करने वाले सामाजिक सम्मेलनों और रीति-रिवाजों की उनकी अवहेलना ने 1880 के दशक के रूढ़िवादी भारतीय समाज में बहुत से लोगों को हिलाकर रख दिया और 1891 में एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट पारित किया। उन्होंने तब असाधारण साहस और दृढ़ संकल्प के साथ अपमान का सामना  किया। ,  उन्हे  इसके लिए अपमानित  होना पड़ा लेकिन असाधारण साहस और दृढ़ संकल्प के साथ  अपमान का सामना  किया |

19 वी शताब्दी के पहले हिन्दु धर्म मे भी तलाक का कोई नियम नहीं था,हिन्दु धर्म की दर्शन के अनुसार विवाह जनमजन्मांतर का रिसता होता है और एक बार के विवाह के बाद इसे तोड़ा  नहीं जा सकता है, और न  दूसरा विवाह किया जा सकता था ,पर यह नियम केवल महिलाओ के लिए था, पुरुष दूसरा  विवाह कर सकता था और अपनी पत्नी की त्याग सकता था 

   

                                                                                                                           जिसका दुष्परिणाम यह था की मरणासन्नय बुजुर्ग पुरुष चोटी उम्र की कन्या से बाल विवाह करते और  कम उम्र मे ये कन्या विधवा हो जाती और धर्म के कठोर नियम के कारण इनका जीवन  नरक हो जाता |

  इसके विरोध मे कई  पुरुष समाज सुधारक आए थे पर कोई महिला जो इसे पीड़ित थी वो समाज के डर  से कभी आगे नहीं  आई ,और जो आगे आई उन्हे  वैश्या कह कर अपमानित किया, उनके चरित्र का हनन किया ,

महिला की हमेशा से ये कमजोरी रही या समाज को महिला की इस कमजोरी का फायदा कि  जब भी महिला अपने अधिकारों की मांग की उसे समाज ने वैश्या  कह कर पुकारा | जिसका उदाहरण है रखमा बाई  


आज हम इन्ही महिलाओ में  से एक रखमा बाई ,जिनके संघर्ष के कारण विवाह संबंधित  कानूनी  सामाजिक सुधारक  नियम बने , इसके लिए उन्होंने अपमान भी सहा पर वो कभी रुकी नहीं |  

 

रखमाबाई का जन्म 1864 को  बाम्बे में  हुआ, कम उम्र मे ही उनके पिता जनर्धन पांडुरंग  का स्वर्गवास हो गया ,सामाजिक दबाव के कारण  रुखमाबाई की माँ जयंतीबाई ने , रुखमाबाई का , जब वह केवल ग्यारह वर्ष की थीं तभी  दादाजी भिकाजी से उनका विवाह कर दिया गया था।

      विवाह के बाद भी रखमाबाईअपनी विधवा माता जयंतीबाई के घर में रहती रही, जयंतीबाई खुद बाल विवाह के  प्रथा की पीड़िता  थीं - उनका  14 साल की उम्र में विवाह हुआ , और 17 साल की उम्र में वो विधवा हो गईं।  बाद में रुखमाबाई की  मां का  एक सहायक सर्जन सखाराम अर्जुन से पुनरविवाह हुआ । सखाराम अर्जुन मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज में एक डॉक्टर और वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर थे , वह भारत में शिक्षा और महिला सामाजिक सुधार के समर्थक थे।

                                                                                                                 रखमाबाई शादी के बाद के वर्षों में अपने माता-पिता के घर में रहती थी।  इस अवधि के दौरान, रखमाबाई अपने सौतेले पिता के निर्देशों का पालन करते हुए खुद को शिक्षित करने का निर्णय  किया, जो उस समय के मानदंडों के विरुद्ध था।



वो जिनके विरोध के कारण विवाह के लिए उम्र का कानून बना, रखमा  बाई  जिसने अपने बालविवाह का विरोध कर कानून से तलाक  की मांग की |


रखमाबाई अभी भी स्कूल में पढ़ रही थी जब उनके पति दादाजी भीकाजी ने मार्च 1884 में मांग की कि रखमाबाई उनके साथ चलें और रहें। रखमाबाई ने  साथ रहने के लिए मना कर दिया और उनके सौतेले पिता सखाराम अर्जुन ने उसके इस निर्णय का समर्थन किया

rakhmabai mukdma 1886
Rakhmabai biography 


और बाद में  दादाजी ने अपनी पत्नी पर पति के संवैधानिक अधिकारों की बहाली के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दादाजी भिकाजी बनाम रुखमाबाई, 1885 को भिकाजी के "वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना" दायर की।  सामान्य  शब्दों में कहे तो , वे  चाहते  थे  कि अदालत उसकी पत्नी रखमाबाई को उसके पति के  घर जाने  और उसके साथ रहने का निर्देश दे। इस याचिका के निर्णय मे विवाह की पुष्टि हुई,उन्हे पति के साथ जाने का आदेश दिया |

                                                  युवा रखमाबाई ने अपने पति के साथ जाने से दृंढ़ता से मना कर दिया और अदालत ने उन्हें दो विकल्प दिए - या तो वे आदेशों का पालन करें या कारावास का सामना करें और जेल जाएं।

  रखमाबाई ने बहादुरी से यह कहते हुए अपनी  बात रखीं,कि वह इस  विवाह में बने  रहने के बजाए  आदेशों का उल्लंघन कर  आजीवन कारावास (जेल ) को प्राथमिकता देंगी । 

उनका तर्क था  कि "उसे ऐसी  शादी के लिए  मजबूर नहीं किया जा सकता था, जिसे उस  उम्र में आयोजित किया गया था जब वह सहमति देने में असमर्थ थी| यह एक ऐसा तर्क था, जो उस समय के समाज के लिए अनसुना और अकल्पनीय था।

इसने 19 वीं शताब्दी में बॉम्बे और वास्तव में भारत में सबसे अधिक प्रचारित अदालतों में से एक की शुरुआत की। इस मामले ने 1880 के दशक के दौरान ब्रिटिश प्रेस में बहुत ध्यान आकर्षित किया, जिससे बाल विवाह और महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा सामने आया।

इसके  कई सुनवाई के बाद, शादी की पुष्टि की गई, जहां रखमाबाई ने रानी विक्टोरिया को लिखा। रानी ने अदालत के फैसले को खारिज कर दिया और शादी को भंग कर दिया। 1888 के जुलाई में, दादाजी ने शादी को भंग करने के लिए दो हजार रुपये का मौद्रिक मुआवजा स्वीकार किया।परिणामस्वरूप, दोनों पक्ष एक समझौता कर आए और रखमाबाई को कारावास से बचा लिया गया। उसने वित्तीय सहायता के सभी प्रस्तावों को भी अस्वीकार कर दिया था और अपनी कानूनी लागतों का भुगतान किया था। आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के बावजूद, यह मामला औपनिवेशिक भारत में विवाह में महिलाओं के लिए उम्र, सहमति और पसंद के मुद्दों को उठाने के लिए एक मील का पत्थर बन गया।

 

जिसका  समाज के विभिन्न वर्गों ने विरोध किया , जबकि दूसरे समाज सुधारक वर्गो  ने प्रशंसा की थी।कुछ हिंदुओं ने दावा किया कि कानून ने हिंदू सीमाओं की पवित्रता का सम्मान नहीं किया,  

इस  विवाद ने समाज को बाल-विवाह, विवाह में महिलाओ की सहमति ,विवाह के लिए उम्र कितना हो! , जैसे बातों पर विचार करने केलिए मजबूर किया | इससे उत्पन्या कई  मुद्दों  के बारे में सार्वजनिक बहस चली -जैसे प्राचीन रिवाज़ का सम्मान किया जाना चाहिए या नहींहिंदू कानून बनाम इंग्लिश कानून, बाहरी  बनाम अंदर से सुधार, प्राचीन रिवाज़ का सम्मान किया जाना चाहिए या नहीं और इसी तरह।

        यह एक ऐसा मामला था जिसे ब्रिटेन में भी बहुत अधिक ध्यान मिला, जहाँ महिलाओं की पत्रिकाओं ने इसे कवर किया। इस मामले ने जो तरंगें पैदा कीं, वे आयु अधिनियम, 1891 के पारित होने के प्रभाव में आईं, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य में बाल विवाह को अवैध बना दिया।

 

 भारत की एमडी करने वाली पहली महिला डॉक्टर साथ ही प्रैक्टिस करने वाली पहली डॉक्टर महिला First-Practitioner-Woman-Doctor



अंत में अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए, रखमाबाई ने एक डॉक्टर के रूप में प्रशिक्षण लेने का फैसला किया। रखमाबाई ने बॉम्बे के कामा अस्पताल के ब्रिटिश निदेशक, एडिथ पेची फिप्सन द्वारा समर्थित, एक अंग्रेजी भाषा पाठ्यक्रम लिया और 1889 में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वूमेन में अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड गए। लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वूमेन

अपनी पढ़ाई खत्म करने के बाद रखमाबाई अपने देश लौट आईं, सूरत में मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में एक पद हासिल किया चिकित्सा में 35 वर्ष के करियर की जिसके दौरान उन्होंने बाल विवाह और महिलाओं के एकांत (परदाह ) के खिलाफ लिखना जारी रखी ।

 उन्होंने फिर कभी शादी नहीं की,जीवन भर महिलाओ के स्वास्थ एवम  शिक्षा पर लिखती रही  और 91 साल की उम्र में 1955 में अपनी मृत्यु तक सामाजिक सुधार में सक्रिय रहीं।

 

"जैसा तुम सोचते हो, वैसे ही बन जाओगे 

खुद को निर्बल मानोगे तो निर्बल और

 सबल मानोगे तो सबल ही बन जाओगे।"

                                                                                                             -  स्वामी विवेकानंद 


उन्होंने जीवन जीने के अपने अधिकारों  के लिए  संघर्ष किये और अपने कभी न हारने मानने वाले अडिग व्यक्तित्व के बदौलत एक समजसेवक डॉक्टर बनी,रास्ते मे आने वाली हर बाधा का हिम्मत से सामना किया और समाज के विरुद्ध जा कर अपने हक के लिए निर्भीकता से  आवाज उढ़ाना, जो आज के समय  21 वी शताब्दी मे भी कठिन काम  हैं |


 रखमाबाईभारत की प्राम्भिक महिला चिकित्सकों में  से एक  थीं। इनसे पहले आनंदी बाई जोशी और कादम्बिनी गांगुली एक ही वर्ष 1886 में यह चिकित्सकीय शिक्षा पा चुकी थी। रुखमाबाई को भारत की पहली अभ्यास महिला चिकित्सक होने का सम्मान प्राप्त है। हालांकि आनंदी गोपाल जोशी एक डॉक्टर के रूप में अर्हता प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला थींअसमय मृत्यु के कारण उन्होंने कभी दवा का अभ्यास नहीं किया।


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