Nida Fazli | निदा फ़ाज़ली परिचय | नज़्म और शायरी

  

दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना हैं |


 निदा फ़ाज़ली (Nida Fazli) परिचय -


मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली या निदा फ़ाज़ली,पिता मुर्तुज़ा हसन और माँ जमील फ़ातिमा के घर तीसरी संतान थे ,बाल्यकाल ग्वालियर में गुजारा जहाँ पर उनकी शिक्षा हुई।वो छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। निदा फ़ाज़ली इनका लेखन का नाम है। निदा का अर्थ है  आवाज़/ Voiceफ़ाज़ली  क़श्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा।

 किसी को सूरदास का भजन मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे? गाते सुना,वह सुन कर निदा जी  को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दुख की गिरहें खुल रही है।


निदा फ़ाज़ली जी ने  कबीरदासतुलसीदासबाबा फ़रीद इत्यादि कई अन्य कवियों को भी पढ़ा और उन्होंने पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट के, दो-टूक भाषा में, लिखी रचनाएँ अधिक प्रभावकारी है| जैसे सूरदास की ही उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस॥, तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उनकी अपनी शैली बन गई।

हिन्दू-मुस्लिम क़ौमी दंगों से तंग आ कर उनके माता-पिता पाकिस्तान जा के बस गए, लेकिन निदा जी  यहीं भारत में रहे। कमाई की तलाश में कई शहरों में भटके। उस समय बम्बई (मुंबई) हिन्दी/ उर्दू साहित्य का केन्द्र था और वहाँ से धर्मयुग/ सारिका जैसी लोकप्रिय और सम्मानित पत्रिकाएँ छपती थीं तो १९६४ में निदा जी काम की तलाश में वहाँ चले गए और धर्मयुग, ब्लिट्ज़ (Blitz) जैसी पत्रिकाओं, समाचार पत्रों के लिए लिखने लगे। 


निदा फ़ाज़ली द्वारा लिखे लोकप्रिय गीत


  • तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है (फ़िल्म रज़िया सुल्ताना)। यह उनका लिखा पहला फ़िल्मी गाना था।
  • आई ज़ंजीर की झन्कार, ख़ुदा ख़ैर कर (फ़िल्म रज़िया सुल्ताना)
  • होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है (फ़िल्म सरफ़रोश)
  • कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता (फ़िल्म आहिस्ता-आहिस्ता) (पुस्तक मौसम आते जाते हैं से)
  • तू इस तरह से मेरी ज़िंदग़ी में शामिल है (फ़िल्म आहिस्ता-आहिस्ता)
  • चुप तुम रहो, चुप हम रहें (फ़िल्म इस रात की सुबह नहीं)
  • दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है (ग़ज़ल)
  • हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी (ग़ज़ल)
  • अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये (ग़ज़ल)
  • टीवी सीरियल सैलाब का शीर्षक गीत

दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना हैं 


निदा फ़ाज़ली द्वारा प्राप्त  पुरस्कार और सम्मान

Awards & Achievements  


  • 1998  साहित्य अकादमी पुरस्कारSahitya Akademi Award - काव्य संग्रह   खोया हुआ सा कुछ (१९९६) पर - Writing on communal harmony
  • National Harmony Award for writing on communal harmony
  • 2003  स्टार स्क्रीन पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म 'सुर के लिए
  • 2003   बॉलीवुड मूवी पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म सुर के गीत आ भी जा' के लिए
  • मध्यप्रदेश सरकार का मीर तकी मीर पुरस्कार (आत्मकथा रुपी उपन्यास दीवारों के बीच के लिए)
  • Padma Shri पद्मश्री 2013  भारत सरकार द्वारा 




निदा फ़ाज़ली जी के प्रसिद्ध नज़्म 

1.  दिन सलीके से उगा 

                 


                   दिन सलीके से उगा 

रात ठिकाने से रही 

        दोस्ती अपनी भी कुछ

                   रोज़ ज़माने से रही |


चंद लम्हों को ही बनती हैं

मुसव्विर आँखें

ज़िन्दगी रोज़ तो

तसवीर बनाने से रही |



इस अँधेरे में तो

ठोकर ही उजाला देगी

रात जंगल में कोई शमअ

जलाने से रही |


फ़ासला, चाँद बना देता है

हर पत्थर को

दूर की रौशनी नज़दीक तो

आने से रही |


शहर में सबको कहाँ मिलती है

रोने की जगह

अपनी इज्जत भी यहाँ

हँसने-हँसाने में रही |



2.   जो हुआ सो हुआ


         जो हुआ सो हुआ..

        उठके कपड़े बदल, घर से बाहर निकल

         जो हुआ सो हुआ

        रात के बाद दिन, आज के बाद कल

        जो हुआ सो हुआ

                                               जब तलक साँस है, भूख है प्यास है 

                                               ये ही इतिहास है

                                                रख के काँधे पे हल, खेत की ओर चल

                                                जो हुआ सो हुआ

       खून से तर-ब-तर, करके हर रहगुज़र 

       थक चुके जानवर 

       लकड़ियों की तरह, फिर से चूल्हे में जल

               जो हुआ सो हुआ

                                  जो मरा क्यों मरा, जो जला क्यों जला

जो लुटा क्यों लुटा

                मुद्दतों से हैं गुम, इन सवालों के हल

जो हुआ सो हुआ


      मन्दिरों में भजन मस्जिदों में अज़ाँ

      आदमी है कहाँ ?

      आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल

      जो हुआ सो हुआ

 

3.धूप में निकलो

धूप में निकलो, घटाओं में

नहाकर देखो

ज़िन्दगी क्या है, किताबों को

हटाकर देखो |

सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया

नहीं देखी जाती

दिल की धड़कन को भी बीनाई

बनाकर देखो |

पत्थरों में भी ज़बाँ होती है

दिल होते हैं

अपने घर के दरो-दीवार

सजाकर देखो |

वो सितारा है चमकने दो

यूँ ही आँखों में

क्या ज़रूरी है उसे जिस्म

बनाकर देखो |

फ़ासला नज़रों का धोका भी

तो हो सकता है

चाँद जब चमके तो ज़रा हाथ

बढाकर देखो |

4.अपनी मर्ज़ी से


अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |

 

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है

अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |

 

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से

किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |

 

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं

कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |

 

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब

सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |

 

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम

हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |


5. ज़िन्दगी




 

कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं

मिला मुझको घर का पता देर से

दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे

मगर जो दिया वो दिया देर से



हुआ न कोई काम मामूल से

गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह

कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर

कभी घर में सूरज उगा देर से



कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब
हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से 



ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है

यही है जुदाई, यही मेल है

मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक

बनी वो ख़मोशी, सदा देर से 



सजा दिन भी रौशन हुई रात भी

भरे जाम लगराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से 

 भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी 

मिली न कहीं से कोई रौशनी 

छुपा था कहीं भीड़ में आदमी

हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से

 6 .चल सको तो चलो


सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

इधर उधर कई मंज़िल हैं चल सको तो चलो

बने बनाये हैं साँचे जो ढल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता

मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो

यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चन्द उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

हर इक सफ़र को है महफ़ूस रास्तों की तलाश

हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो

कहीं नहीं कोई सूरज, धुआँ धुआँ है फ़िज़ा

ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो


7 .खट्टी चटनी-जैसी माँ

 

बेसन की सोंधी रोटी पर

     खट्टी चटनी-जैसी माँ

याद आती है चौका-बासन
     चिमटा, फुकनी जैसी माँ|

 

चिड़ियों की चहकार में गूँज़े

 राधा-मोहन, अली-अली

 मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती

         घर की कुण्डी-जैसी माँ|



बान की खुर्री खाट के ऊपर

     हर आहट पर कान धरे

आधी सोयी आधी जागी

     थकी दोपहरी-जैसी माँ|

 

बाँट के अपना चेहरा, माथा

     आखें जाने कहाँ गयी

फटे पुराने इक अलबम में

     चंचल लड़की जैसी माँ|

 

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन

     थोड़ी-थोड़ी-सी सब में

दिनभर इक रस्सी के ऊपर
     चलती नटनी-जैसी माँ|



उम्मीद हैं आपको  Nida Fazli | निदा फ़ाज़ली परिचय | नज़्म और शायरी पसंद आई होगी ।.. धन्यवाद !


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