Karmabhumi Pustak Samiksha in Hindi | कर्मभूमि-प्रेमचंद - पुस्तक समीक्षा |मुंशी प्रेमचंद -कर्मभूमि
कर्मभूमि समीक्षा / Karmabhumi Samiksha
पुस्तक का नाम |
"कर्मभूमि" |
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शैली /GENRES :- |
आत्मबोध,देशभक्ति |
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लेखक /AUTHOR :- |
मुंशी प्रेमचंद |
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प्रकाशक /PUBLISHER |
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प्रकाशन/PUBLISHED |
1934 |
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सीरीज/SERIES |
नहीं |
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मूल्य/price |
160 rupees |
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काल्पनिक / Fictional |
काल्पनिक |
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वास्तविक/Nonfictional |
नहीं |
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ABUSIVE WORD |
No |
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पाठक / Reader Age |
सभी उम्र के पाठक |
कर्मभूमि समीक्षा / Karmabhumi Samiksha --
कर्मभूमि का प्रकाशन 1934 मे हुआ था | 1930 के दशक की शुरुआत में भारत के एक बड़े समूह में गरीब और अनपढ़ लोगों शामिल थे , इन गरीबों और मेहनतकश जनता के प्रति सहानुभूति और विदेशी अत्याचार के खिलाफ ही प्रेमचंद ने कर्मभूमि की पृष्ठभूमि लिखी।
गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन से बहुत प्रभावित होने के कारण, प्रेमचंद ने इस उपन्यास को गांधीजी द्वारा बनाए गए सामाजिक लक्ष्यों (स्वच्छ सड़क,आवास,जल )के इर्द-गिर्द रचा ।
इस उपन्यास में मानव जीवन को एक ऐसे कर्म के क्षेत्र के रूप में दिखाया जाता है जिसमें व्यक्तियों के चरित्र और नियति उनके कार्यों के माध्यम से बनती और प्रकट होती है।प्रत्येक चरित्र नैतिक जागृति के एक बिंदु पर पहुचते हैं , जहां सभी पुरुष व स्त्री को अपने विश्वासों पर कार्य करना चाहिए।
मुंशी प्रेमचंद जी मानव स्वाभाव को बहुत ही बारीकी से देखते थे शायद उनकी इस शक्ति का कारण ही था कि जो वे बहुत ही उत्तम ढंग से "मन के भावों " को व्यक्त किया | उन्होंने इंसान को इंसानी व्यवहार में ही दिखाया, न ही उनमे पूरी अच्छाई ही भरी हैं और न ही पूरी बुराई ही, उसमे काम, क्रोध, लोभ, मोह,ईषया ,जलन भी हैं ,तो सत्य, त्याग, विनय, दया, करूणा ,सेवा भी और यह हर मनुष्य में हैं|
किसी व्यक्ति का गुण और अवगुण स्थान एवं काल पर निर्भर होता हैं एक व्यक्ति कही अच्छा ,तो वही व्यक्ति कही और बुरा भी हो सकता हैं बस इन भावों की चाभी अहंकार हैं उपन्यास के सभी पात्र कही न कही अंहकार को रखे है सही या त्यागी होने का अहंकार ,दुसरो का भला करने का अहंकार,स्वयं के सत्यवान होने का अहंकार ,जो बहुत ही सरलता से प्रेमचंद्र देख लेते रहे होंगे,उनके रचे पात्र काल्पनिक तो है पर बिल्कुल वास्तविकता के साथ हैं|
कर्मभूमि, वह भूमि जहाँ सभी को अपना-अपना कर्म करना होता हैं | जो भी यहाँ हैं वह कर्म करेगा, चाहे काम कितना छोटा-सा ही क्यों न हो,पर मनुष्य अपने स्वभाव के वशीभूत हैं "तुलना करने का स्वभाव " !, उसे समझ ही नहीं आता की कर्म की श्रेष्ठता नापी ही नहीं जा सकती हैं स्वयं को कर्मयोगी और दूसरे को अकर्मी मानता हैं,और करे भी क्यों न ,उसके पास दो आंखे जो हैं और उससे वह अपने और दूसरे में अंतर करता हैं | अंतर करने की आदत में उसे अपने कर्म दूसरे से अपेक्षा सदैव ऊंचे,श्रेष्ठ और सही भी लगते है,
यह दोष उसके अहंम् में ही विद्यमान हैं उसे संसार के सारे सही कर्म का पता हैं अपने अल्प ज्ञान से ही वह सही गलत का निर्णय करता हैं बिना असल सत्य को जाने ,पर जब उसको सत्य का भान होता हैं, कि औरों (दूसरों )का कर्म उसके कर्म से कही ज्यादा ऊंचा हैं तब उसे आत्मबोध होता है
ये "आत्मबोध या नैतिक जागृति" की कहानी हैं , एक लोभी अपना सब कुछ त्याग करता है|,तो अपनों का सुख चाहने वाली, सभी के सुख के लिए कष्ट सहती हैं ,उसे अपने प्राणों का भी लोभ नहीं रहता हैं और जो त्याग के अहंकार में था उसे आत्मबोध होता हैं हर व्यक्ति अपने अपने तल पर बहुत ही कर्मठ हैं बस सही वक्त ही उसका रूप दिखा सकता हैं |
और अंत ,गरीबों की एक सभा में होता है जहां वे जमीन की मांग करते हैं। बोलने वालों में सबसे कम उम्र का व्यक्ति , एक पुलिसकर्मी की गोली से मार दिया जाता है, और इस घटना के बाद आखिरकार गरीबों के लिए जमीन की जीत होती है।
कर्मभूमि - पुस्तक समीक्षा | Karmabhumi Pustak Samiksha in Hindi
कर्मभूमि उपन्यास के पात्र / Karmabhumi novel patr
कर्मभूमि उपन्यास में अमरकांत मुख्य पात्र में हैं साथ ही अमरकांत के पिता लाला समरकांत,उसकी पत्नी सुखदा ,बहन नैना ,दोस्त सलीम ,सकीना ,डॉ. शांतिकुमार ,मुन्नी ,सलोनी और भी सहायक पात्र हैं |इस कहानी में मे महिला परत ने भी देश के लिए और अन्याय के खिलाफ बढ़ चढ़ कर भाग लिया हैं |
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कर्मभूमि सारांश / Karmabhumi Saransh
कर्मभूमि 1930 के दशक के उत्तर प्रदेश की है। कहानी का मुख्य पात्र अमरकांत अपने बचपन से ही पिता समरकांत और उनके धनी स्वभाव को पसंद नहीं करता ,वह अपनी बहन नैना के कारण ही अपने घर से कुछ मोह रखता था |उसे उनके दुकान में काम करना भी पसंद नहीं करता ,और अपने कुछ मित्रों के साथ आजादी की लड़ाई मे लग जाते हैं और पश्चिमी सभ्यता के विरोधी होते हैं
अमरकांत एक बुद्धिमान और आदर्शवादी हैं, यदपि कमजोर भी , वह युवा जो अपने पिता के व्यवसाय से घृणा करने और हिंदू धर्म की औपचारिकताओं का पालन करने के लिए बड़ा हुआ है।
उन्होंने सुखदा से शादी की जो सुंदर और बुद्धिमान हैं लेकिन जीवन के लिए अपने तार्किक और डाउन-टू-अर्थ दृष्टिकोण के माध्यम से उन पर हावी हैं। अमरकांत अपनी पत्नी को भी धन चाहने वाली सुख सुविधा कहने वाली विलासनी औरत मानता हैं |
घर में प्यार से वंचित तथा अपनी पत्नी से तंग आकर,अमरकांत ने अपने बूढ़े सेविका की पोती, विनम्र सकीना की ओर आकर्षित होता हैं । जब उसके पिता सकीना को स्वीकार करने से मना कर देते हैं, तो अमरकांत घर छोड़ देता है और गांव-गांव भटकने लगता हैं |
अंत में अछूतों के एक गांव में बसने के बाद, वह बच्चों को पढ़ाता हैं और ग्रामीणों को भूमि कर के खिलाफ राहत के लिए उनकी लड़ाई में मदद करता हैं।
शुरू में गरीबों के लिए अपने पति की सहानुभूति को समझने में असमर्थ, सुखदा आखिरकार आंदोलन में शामिल हो जाती हैं , जब उसने सुखदा पुलिस को मंदिरों के अंदर अछूतों की स्वीकृति के लिए अहिंसक प्रदर्शन पर गोलीबारी करते देखा। तब वह शहर के गरीब और दलित नेता के रूप में तुरंत पहचान और स्वीकृति प्राप्त करता है।
वही दूसरी ओर इसी तरह की मान्यता पहचान प्राप्त करने की इच्छा से प्रभावित, अमरकांत सीधे टकराव (हिंसा) के पक्ष में अहिंसा के मार्ग से भटक गए, जिससे किसानों में कई लोग हताहत हुए। और अंत में आखिरकार महसूस करता है कि गांधीवादी रास्ता बेहतर था और इसकी ओर लौटता हैं ।